कविता संग्रह >> निशान्त की चिड़िया निशान्त की चिड़ियाजीवकान्त
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प्रस्तुत है मैथिली काव्य संग्रह....
NISHANT KI Chidiya
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
श्री जीवकान्त समकालीन मैथिली काव्य-परिदृश्य के एक प्रतिष्ठित कवि हैं। जीवन के प्रायः सारे विषय इनकी कविताओं के उपजीव्य हैं। अनुभव की प्रामाणिकता और जटिल से जटिल जीवनानुभव की सीधी भाषा में सहजतापूर्वक कह देना उनके काव्य-व्यक्तित्व की पहचान है।
जीवकान्त जी समृद्ध जीवनानुभव, परम्परा और वास्तविक जीवन-दृष्टि के कारण तमाम जटिलताओं को सुलझाने में सफल हुए। इनकी कविता सदैव स्वस्थ, लोकोन्मुख और संघर्षशील समाज की रचना के लिए गतिशील चेतना से सम्पन्न रही है।
अन्याय के प्रति निरन्तर विक्षोभ, आक्रोश और ठीक वैसे ही ‘अपने लोगों’ के प्रति सहज करुणा और वात्सल्य इनकी कविताओं के मूल राग हैं। आम भारतीय नागरिक, इनकी कविताओं के केन्द्र में रहता है। जीवकान्त के नायक अपने परिवेश के तमाम अँधेरे, जटिलता तथा अमानवीय और क्रूर होती व्यवस्था के विरुद्ध मुँह खोलते हैं, दासता के सारे बन्धनों को तोड़ने के लिए और अपने अर्जित पौरुष-घोषणा के साथ उससे बाहर निकल आने के लिए संघर्ष करते हैं।
मिथिलांचल के जीवन, समाज, संस्कृति, भूगोल और वातावरण के गम्भीर और सहज स्वाभाविक चित्रण जीवकान्त की कविताओं के महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं। यह प्रभाव अनायास ही नहीं, बल्कि वहाँ के जीवन को नज़दीक से देखते-सुनते और भोगते रहने की प्रीतिपूर्ण तैयारी से आया है।
वर्ष 1998 के लिए साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित उक्त काव्य कृति का मूल मैथली से हिन्दी अनुवाद श्री नारायण जी और श्री केदार कानन ने किया है। ये दोनों स्वयं महत्त्वपूर्ण कवि हैं और अनुवादक के नाते भी समादृत हैं।
जीवकान्त जी समृद्ध जीवनानुभव, परम्परा और वास्तविक जीवन-दृष्टि के कारण तमाम जटिलताओं को सुलझाने में सफल हुए। इनकी कविता सदैव स्वस्थ, लोकोन्मुख और संघर्षशील समाज की रचना के लिए गतिशील चेतना से सम्पन्न रही है।
अन्याय के प्रति निरन्तर विक्षोभ, आक्रोश और ठीक वैसे ही ‘अपने लोगों’ के प्रति सहज करुणा और वात्सल्य इनकी कविताओं के मूल राग हैं। आम भारतीय नागरिक, इनकी कविताओं के केन्द्र में रहता है। जीवकान्त के नायक अपने परिवेश के तमाम अँधेरे, जटिलता तथा अमानवीय और क्रूर होती व्यवस्था के विरुद्ध मुँह खोलते हैं, दासता के सारे बन्धनों को तोड़ने के लिए और अपने अर्जित पौरुष-घोषणा के साथ उससे बाहर निकल आने के लिए संघर्ष करते हैं।
मिथिलांचल के जीवन, समाज, संस्कृति, भूगोल और वातावरण के गम्भीर और सहज स्वाभाविक चित्रण जीवकान्त की कविताओं के महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं। यह प्रभाव अनायास ही नहीं, बल्कि वहाँ के जीवन को नज़दीक से देखते-सुनते और भोगते रहने की प्रीतिपूर्ण तैयारी से आया है।
वर्ष 1998 के लिए साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित उक्त काव्य कृति का मूल मैथली से हिन्दी अनुवाद श्री नारायण जी और श्री केदार कानन ने किया है। ये दोनों स्वयं महत्त्वपूर्ण कवि हैं और अनुवादक के नाते भी समादृत हैं।
भूमिका
मेरी कविता-यात्रा के तीस वर्ष
एक बात याद आती है। तब मैं छोटा था। दरवाजे़ पर दोपहर में दस-बीस लोग आकर बैठते थे। वे ताश खेलते थे। उसमें इशारे। शोरगुल। तू-तू मैं-मैं। ऐसी ही कई बातें होतीं।
उसी दरवाज़े पर उन्हीं दिनों कभी-कभार रामायण-पाठ भी होता। एक व्यक्ति रामायण की पंक्तियाँ सस्वर पढ़ता, दूसरा उन पंक्तियों की मैथिली गद्य में टीका करता। कोई जानकार अतिथि आता तो लोग उससे भी रामायण वाचन सुना करते। रामायण का यह वाचन मुझे उत्कंठित करता। अद्भुत लगता था किताब का मुद्रित शब्द। उन शब्दों का उच्चरित होना अद्भुत था। उसी तरह अद्भुत था, उन शब्दों में अर्थ भर देने का हंगामा। एक ही पंक्ति के दो-दो अर्थ और तीन-तीन अर्थ प्रकट करने के प्रयास में हार-जीत का हल्ला होता था, कोई जीतता और कोई हारता था।
याद आता है। अपना गाँव। अपना दरवाज़ा। मनोरंजन-‘काव्यशास्त्र विनोद’ का वह समवेत प्रयास। उसमें मेरा बाल-मन बग़ल में बैठा दर्शक होता।
अब इस दर्शक ने छिपकर अपनी कापियों में छंद और तुकों का खेल शुरू किया था। यह खेल शुरू हुआ था हिन्दी में। पढ़ने और पढ़ाने का माध्यम सर्वत्र हिन्दी था।
कविता लिखने की प्रेरणा मुझे कहाँ से मिली, यह कहना कठिन है, लेकिन अनेक प्रेरक तत्त्वों में से एक यह तत्त्व अलग और याद करना सहज हुआ है।
फिर लिखने में एक दीर्घ विराम आया। 1957 में आई.एस.सी.में मेरा परीक्षाफल अच्छा नहीं रहा और मैं नौकरी करने को चला गया था। फिर कोई सुयोग हुआ कि 1964 में स्वतंत्र रूप से मैंने बी.ए. की परीक्षा पास की और कविता लिखने की इच्छा हुई। बी.ए. पास करने पर प्रसननता मिली थी और जीवन में कुछ महत्त्वपूर्ण करने की इच्छा हुई थी और तब मैथिली कविता लिखने की योजना बनाई। उसका परिणाम हुआ इस पुनरारम्भ की पहली कविता-‘इजोरिया आ टिटही’, जो ‘मिथिला मिहिर’ के जनवरी 1965 के किसी अंक में प्रकाशित हुई थी।
जब मेरी पहली कविता ‘मिथिला मिहिर’ में छपी थी तब मैं खजौली हाई स्कूल में द्वितीय विज्ञान शिक्षक था और मेरे चारों ओर मैथिली लिखनेवाले लोग कम ही थे। मैथिली की पढ़ाई (द्वितीय भारतीय भाषा के रूप में) कितनी अलोकप्रिय थी कि किसी भी परीक्षा में मैथिली साहित्य मेरा पाठ्य-विषय न था। लिखने की कोई तैयारी नहीं थी। कोई मार्गदर्शन नहीं। लिखी गयी चीज़ों पर कोई चर्चा करने वाला नहीं।
वह समय जवाहरलाल नेहरू के शासन-काल का अन्तिम वर्ष था। लोगों में निराशा थी। लोग निष्फलता का अनुभव करते थे। शासन और प्रशासन में चोरी और भ्रष्टाचार प्रवेश करने लगे थे। जवाहरलाल के पास एक उद्देश्य था, जो दिलासा देता था। उनके बाद के शासक उद्देश्यविहीन हो गये। ‘शासन के लिए शासन’ का युग शुरू हुआ और सामाजिक जीवन लोभ और पाखंड से भर गया, जिसका सिलसिला अभी तक बना हुआ है।
शासन या समाज पर टिप्पणी करना हमारी कविताओं के विषय थे। उन दिनों कविताओं में चर्चित नाम थे- राजकमल चौधरी, रामकृष्ण झा ‘किसुन’ सोमदेव धीरेन्द्र, कीर्तिनारायण मिश्र, वीरेन्द्र मल्लिक आदि। राजकमल चौधरी अभिव्यक्ति और प्रभाव में आतंक पैदा करते थे। वे सर्वाधिक चर्चित और आदरणीय कवि थे।
उन दिनों की कविता आक्रोश और असहमति की कविता थी। विरोध की कविता थी। वर्ग-संघर्ष उन कविताओं का मूल विषय नहीं था।
मैथिली में परम्परावादी कविताएँ भी लिखी जाती थीं और किसी बाध्यता के कारण ‘मिथिला-मिहिर’ में उन कविताओं को भी छाप दिया जाता था। उसमें सुमन, मधुप के अतिरिक्त विनीत और आरसी की कविताएँ भी छप जाती थीं। परम्परावादी कविताएँ नवलेखन का विरोध करतीं और नवलेखन परम्परावादी कविताओं को मृत घोषित करता रहता। यह विवाद पत्रिका के लेखों में, किताब की भूमिकाओं में तो होता ही था, कवि-सम्मेलन के मंचों पर भी यह असहयोग और विवाद चलता था। ऐसी बात आज भी है, यह मैथिली का दुर्भाग्य है। कविता की मुख्यधारा का सम्पूर्ण अंगीकार परम्परावादी पंडित साहित्यकार, कुछ प्राध्यापक और उनके पक्षधरों ने अब तक नहीं किया है।
1967 से 1969 तक कुछ बातें हुईं जो मुझे स्मरणीय लगती हैं। सुपौल में नवलेखन सेमिनार हुआ, जिसने नवकविता आन्दोलन को बल प्रदान किया। ‘मैथिलीक नवकविता’–इस नाम से कविताओं का एक सामूहिक संग्रह आया, जिसने ऐसी कविताओं के पक्ष को स्पष्ट किया।
इस बीच रामकृष्ण झा ‘किसुन’ और राजकमल चौधरी की मृत्यु से एक रिक्तता उत्पन्न हुई।
नवलेखन और नई कविता की जो मान्यताएँ थीं, साथ ही उन पर जो आक्रमण और आरोप लगाए जाते थे, उसके लिए एक प्रवक्ता की जरूरत थी और उसका प्रवक्ता मुझे परिस्थितियों ने बना दिया। पत्रिकाओं में नवलेखन के पक्ष में अधिकांश वक्तव्य मैं देता रहता और इसके पीछे काफ़ी परेशान होता रहा। इधर के लिखे एक लेख में कवि कीर्तिनारायण मिश्र ने मेरी उस परेशानी को व्यर्थ सिद्ध किया है।
आजादी से पहले ही कवि यात्री और किरण ने वर्ग-संघर्ष की बात को कविताओं में लाकर उसे परिचित बना दिया था, लेकिन वह बात मैथिली कविता में 1950 से 1975 तक दबी जैसी थी।
इन्दिरा गाँधी ने जब देश में ‘इमरजेंसी’ लगाया, तब भारत की प्रत्येक भाषा के कवि उत्कट रूप में वर्ग-चेतना और वर्ग-संघर्ष की बात करने लगे। मैथिली में इस समय कविता का मुख्य विषय वर्ग-संघर्ष रहा।
जवाहरलाल के देहान्त के बाद नक्सलबाड़ी आन्दोलन ने देश का ध्यान अपनी ओर खींचा। बाङ्ला की कविताएँ इस काल में काफ़ी समृद्ध हुईं। नक्शलबाड़ी की हवा मैथिली कविता को भी लगी और जिसने मैथिली में ऐसी कविताओं को लिखने की प्रेरणा दी। इस युग के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षरों में हैं-कुलानन्द मिश्र हरेकृष्ण झा आदि।
सोवियत संघ के विघटन ने इस देश की कविता के साथ-साथ मैथिली कविता-लेखन को भी प्रभावित किया था।
1990 का समय एक महत्त्वपूर्ण मोड़ दिखाता है। आज नवकविता, प्रगतिशील कविता ने मिट्टी में थोड़ा और भीतर जाकर संघर्ष की बात को एक दीर्घकालिक मानवीय लक्ष्य बना लिया है। इन कविताओं में वैयक्ति जय-पराजय को सामाजिक और सर्वदेशिक जय-पराजय बना देने की बात कही जा रही है। इसमें संघर्ष के लिए नए प्रकार के जागरण और प्रशिक्षण तथा नए प्रकार की सक्रियता की बात कही जा रही है।
इन कविताओं में मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन चित्रित हो रहा है। जीवन की लालसा और सौन्दर्य, प्रधान विषय हुए हैं। उसके अंग बनकर संघर्ष आता है। पराजय इसमें नहीं है। जयी होने का विश्वास है। परिवर्तन की कामना है।
पूर्वी युरोपीय समाज में हो रही उथल-पुथल विध्वंस और नवनिर्माण मैथिली कविता को निराश नहीं करते हैं, उसे पुष्ट करते हैं और उसे एक व्यापक और दीर्घकालिक लक्ष्य के लिए संघर्ष हेतु मग्न होने का संदेश देते हैं। इसमें कुछ नाम बहुत स्पष्ट होकर सामने आये हैं-केदार कानन, तारानन्द वियोगी, नारायणजी, विद्यानंद झा इत्यादि।
मैथिली कविताओं के अनुवाद अन्य भारतीय भाषाओं में आदरपूर्वक हो रहे हैं। भारतीय भाषाओं के संग बहती आज की मैथिली कविता में काफ़ी जीवन्तता, आशा उल्लास और सौन्दर्य है।
उसी दरवाज़े पर उन्हीं दिनों कभी-कभार रामायण-पाठ भी होता। एक व्यक्ति रामायण की पंक्तियाँ सस्वर पढ़ता, दूसरा उन पंक्तियों की मैथिली गद्य में टीका करता। कोई जानकार अतिथि आता तो लोग उससे भी रामायण वाचन सुना करते। रामायण का यह वाचन मुझे उत्कंठित करता। अद्भुत लगता था किताब का मुद्रित शब्द। उन शब्दों का उच्चरित होना अद्भुत था। उसी तरह अद्भुत था, उन शब्दों में अर्थ भर देने का हंगामा। एक ही पंक्ति के दो-दो अर्थ और तीन-तीन अर्थ प्रकट करने के प्रयास में हार-जीत का हल्ला होता था, कोई जीतता और कोई हारता था।
याद आता है। अपना गाँव। अपना दरवाज़ा। मनोरंजन-‘काव्यशास्त्र विनोद’ का वह समवेत प्रयास। उसमें मेरा बाल-मन बग़ल में बैठा दर्शक होता।
अब इस दर्शक ने छिपकर अपनी कापियों में छंद और तुकों का खेल शुरू किया था। यह खेल शुरू हुआ था हिन्दी में। पढ़ने और पढ़ाने का माध्यम सर्वत्र हिन्दी था।
कविता लिखने की प्रेरणा मुझे कहाँ से मिली, यह कहना कठिन है, लेकिन अनेक प्रेरक तत्त्वों में से एक यह तत्त्व अलग और याद करना सहज हुआ है।
फिर लिखने में एक दीर्घ विराम आया। 1957 में आई.एस.सी.में मेरा परीक्षाफल अच्छा नहीं रहा और मैं नौकरी करने को चला गया था। फिर कोई सुयोग हुआ कि 1964 में स्वतंत्र रूप से मैंने बी.ए. की परीक्षा पास की और कविता लिखने की इच्छा हुई। बी.ए. पास करने पर प्रसननता मिली थी और जीवन में कुछ महत्त्वपूर्ण करने की इच्छा हुई थी और तब मैथिली कविता लिखने की योजना बनाई। उसका परिणाम हुआ इस पुनरारम्भ की पहली कविता-‘इजोरिया आ टिटही’, जो ‘मिथिला मिहिर’ के जनवरी 1965 के किसी अंक में प्रकाशित हुई थी।
जब मेरी पहली कविता ‘मिथिला मिहिर’ में छपी थी तब मैं खजौली हाई स्कूल में द्वितीय विज्ञान शिक्षक था और मेरे चारों ओर मैथिली लिखनेवाले लोग कम ही थे। मैथिली की पढ़ाई (द्वितीय भारतीय भाषा के रूप में) कितनी अलोकप्रिय थी कि किसी भी परीक्षा में मैथिली साहित्य मेरा पाठ्य-विषय न था। लिखने की कोई तैयारी नहीं थी। कोई मार्गदर्शन नहीं। लिखी गयी चीज़ों पर कोई चर्चा करने वाला नहीं।
वह समय जवाहरलाल नेहरू के शासन-काल का अन्तिम वर्ष था। लोगों में निराशा थी। लोग निष्फलता का अनुभव करते थे। शासन और प्रशासन में चोरी और भ्रष्टाचार प्रवेश करने लगे थे। जवाहरलाल के पास एक उद्देश्य था, जो दिलासा देता था। उनके बाद के शासक उद्देश्यविहीन हो गये। ‘शासन के लिए शासन’ का युग शुरू हुआ और सामाजिक जीवन लोभ और पाखंड से भर गया, जिसका सिलसिला अभी तक बना हुआ है।
शासन या समाज पर टिप्पणी करना हमारी कविताओं के विषय थे। उन दिनों कविताओं में चर्चित नाम थे- राजकमल चौधरी, रामकृष्ण झा ‘किसुन’ सोमदेव धीरेन्द्र, कीर्तिनारायण मिश्र, वीरेन्द्र मल्लिक आदि। राजकमल चौधरी अभिव्यक्ति और प्रभाव में आतंक पैदा करते थे। वे सर्वाधिक चर्चित और आदरणीय कवि थे।
उन दिनों की कविता आक्रोश और असहमति की कविता थी। विरोध की कविता थी। वर्ग-संघर्ष उन कविताओं का मूल विषय नहीं था।
मैथिली में परम्परावादी कविताएँ भी लिखी जाती थीं और किसी बाध्यता के कारण ‘मिथिला-मिहिर’ में उन कविताओं को भी छाप दिया जाता था। उसमें सुमन, मधुप के अतिरिक्त विनीत और आरसी की कविताएँ भी छप जाती थीं। परम्परावादी कविताएँ नवलेखन का विरोध करतीं और नवलेखन परम्परावादी कविताओं को मृत घोषित करता रहता। यह विवाद पत्रिका के लेखों में, किताब की भूमिकाओं में तो होता ही था, कवि-सम्मेलन के मंचों पर भी यह असहयोग और विवाद चलता था। ऐसी बात आज भी है, यह मैथिली का दुर्भाग्य है। कविता की मुख्यधारा का सम्पूर्ण अंगीकार परम्परावादी पंडित साहित्यकार, कुछ प्राध्यापक और उनके पक्षधरों ने अब तक नहीं किया है।
1967 से 1969 तक कुछ बातें हुईं जो मुझे स्मरणीय लगती हैं। सुपौल में नवलेखन सेमिनार हुआ, जिसने नवकविता आन्दोलन को बल प्रदान किया। ‘मैथिलीक नवकविता’–इस नाम से कविताओं का एक सामूहिक संग्रह आया, जिसने ऐसी कविताओं के पक्ष को स्पष्ट किया।
इस बीच रामकृष्ण झा ‘किसुन’ और राजकमल चौधरी की मृत्यु से एक रिक्तता उत्पन्न हुई।
नवलेखन और नई कविता की जो मान्यताएँ थीं, साथ ही उन पर जो आक्रमण और आरोप लगाए जाते थे, उसके लिए एक प्रवक्ता की जरूरत थी और उसका प्रवक्ता मुझे परिस्थितियों ने बना दिया। पत्रिकाओं में नवलेखन के पक्ष में अधिकांश वक्तव्य मैं देता रहता और इसके पीछे काफ़ी परेशान होता रहा। इधर के लिखे एक लेख में कवि कीर्तिनारायण मिश्र ने मेरी उस परेशानी को व्यर्थ सिद्ध किया है।
आजादी से पहले ही कवि यात्री और किरण ने वर्ग-संघर्ष की बात को कविताओं में लाकर उसे परिचित बना दिया था, लेकिन वह बात मैथिली कविता में 1950 से 1975 तक दबी जैसी थी।
इन्दिरा गाँधी ने जब देश में ‘इमरजेंसी’ लगाया, तब भारत की प्रत्येक भाषा के कवि उत्कट रूप में वर्ग-चेतना और वर्ग-संघर्ष की बात करने लगे। मैथिली में इस समय कविता का मुख्य विषय वर्ग-संघर्ष रहा।
जवाहरलाल के देहान्त के बाद नक्सलबाड़ी आन्दोलन ने देश का ध्यान अपनी ओर खींचा। बाङ्ला की कविताएँ इस काल में काफ़ी समृद्ध हुईं। नक्शलबाड़ी की हवा मैथिली कविता को भी लगी और जिसने मैथिली में ऐसी कविताओं को लिखने की प्रेरणा दी। इस युग के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षरों में हैं-कुलानन्द मिश्र हरेकृष्ण झा आदि।
सोवियत संघ के विघटन ने इस देश की कविता के साथ-साथ मैथिली कविता-लेखन को भी प्रभावित किया था।
1990 का समय एक महत्त्वपूर्ण मोड़ दिखाता है। आज नवकविता, प्रगतिशील कविता ने मिट्टी में थोड़ा और भीतर जाकर संघर्ष की बात को एक दीर्घकालिक मानवीय लक्ष्य बना लिया है। इन कविताओं में वैयक्ति जय-पराजय को सामाजिक और सर्वदेशिक जय-पराजय बना देने की बात कही जा रही है। इसमें संघर्ष के लिए नए प्रकार के जागरण और प्रशिक्षण तथा नए प्रकार की सक्रियता की बात कही जा रही है।
इन कविताओं में मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन चित्रित हो रहा है। जीवन की लालसा और सौन्दर्य, प्रधान विषय हुए हैं। उसके अंग बनकर संघर्ष आता है। पराजय इसमें नहीं है। जयी होने का विश्वास है। परिवर्तन की कामना है।
पूर्वी युरोपीय समाज में हो रही उथल-पुथल विध्वंस और नवनिर्माण मैथिली कविता को निराश नहीं करते हैं, उसे पुष्ट करते हैं और उसे एक व्यापक और दीर्घकालिक लक्ष्य के लिए संघर्ष हेतु मग्न होने का संदेश देते हैं। इसमें कुछ नाम बहुत स्पष्ट होकर सामने आये हैं-केदार कानन, तारानन्द वियोगी, नारायणजी, विद्यानंद झा इत्यादि।
मैथिली कविताओं के अनुवाद अन्य भारतीय भाषाओं में आदरपूर्वक हो रहे हैं। भारतीय भाषाओं के संग बहती आज की मैथिली कविता में काफ़ी जीवन्तता, आशा उल्लास और सौन्दर्य है।
डेओढ़
जीवकान्त
बरगद का बीज
पर्याप्त है प्रकाश
निर्मल है प्रकाश
सहस्राधिक वर्षों से दीप्त यह प्रकाश
दीप्त है अब भी
इस राह पर
निर्मल है प्रकाश
सहस्राधिक वर्षों से दीप्त यह प्रकाश
दीप्त है अब भी
इस राह पर
शुक्रतारा
कल तक जो बच्चा था
उसकी उगने लगी हैं मूँछें
वह देखने लगा है आईना
बार-बार
लहसुन की जड़ों की तरह
दाढ़ी के बाल
निकल आये हैं चिबुक पर
उसे लगता है
कि आ गया है समय
वह खोजने लगा है
हाथों के लिए कोई काम
पाँव जमाने की जगह
वह तकता है अन्तरिक्ष की ओर
तारों की चमक का
प्रकाश है उसकी आँखों में
नई दाढ़ी-मूँछों के बीच
नया उगा शुक्रतारा
अभिनन्दन
उसकी उगने लगी हैं मूँछें
वह देखने लगा है आईना
बार-बार
लहसुन की जड़ों की तरह
दाढ़ी के बाल
निकल आये हैं चिबुक पर
उसे लगता है
कि आ गया है समय
वह खोजने लगा है
हाथों के लिए कोई काम
पाँव जमाने की जगह
वह तकता है अन्तरिक्ष की ओर
तारों की चमक का
प्रकाश है उसकी आँखों में
नई दाढ़ी-मूँछों के बीच
नया उगा शुक्रतारा
अभिनन्दन
23.8.94
स्थगित नहीं होता है जीवन
स्थगित नहीं होता है जीवन
रात में
मन्द हो जाता है
बह रहा होता है जीवन
थरथराता, काँपता,
लगातार
पृथ्वी के इस अँधेरे खंड पर
सुबह उठती है चिड़िया और लपक पड़ती है झुंडों में
मरे साँप की देह पर
स्थगित नहीं होता है जीवन
पौ फटने से पहले ही सुखदेव
अपनी अपियारी में
फँसा लेता है मछलियाँ
आकाश होता जाता है सिलेटी से लाल
और लाल से पीला-उसके पीछे
उसके पीछे
आते हैं आकाश में बादल
गुम हो जाते हैं बादलों के टुकड़े
सुखदेव भरता रहता है मछलियाँ
छोटी टोकरियों में
मंद हो जाता है जीवन
रात में
सुबह के उजियारे में
झर-झर बहता है जीवन
गंगा-धार
रात में स्थगित नहीं होता है
जीवन
रात में
मन्द हो जाता है
बह रहा होता है जीवन
थरथराता, काँपता,
लगातार
पृथ्वी के इस अँधेरे खंड पर
सुबह उठती है चिड़िया और लपक पड़ती है झुंडों में
मरे साँप की देह पर
स्थगित नहीं होता है जीवन
पौ फटने से पहले ही सुखदेव
अपनी अपियारी में
फँसा लेता है मछलियाँ
आकाश होता जाता है सिलेटी से लाल
और लाल से पीला-उसके पीछे
उसके पीछे
आते हैं आकाश में बादल
गुम हो जाते हैं बादलों के टुकड़े
सुखदेव भरता रहता है मछलियाँ
छोटी टोकरियों में
मंद हो जाता है जीवन
रात में
सुबह के उजियारे में
झर-झर बहता है जीवन
गंगा-धार
रात में स्थगित नहीं होता है
जीवन
15.10.94
ढूँढ़ती है चिड़िया
रात के अंतिम पहर में
जागती है चिड़िया
और राजमार्ग पर इकट्ठा होती है झुंड में
छोटे-छोटे जानवरों की देह
कुचली पड़ी होती है भागते पहियों के पीछे
छोटे-छोटे झुंड़ों में
ढूँढ़ती है चिड़िया
आँगन के बाँस पर बैठी है चिड़िया
चोंच से खुजलाती है अपने डैने
ढूँढ़ती है चिड़िया
छप्पर के दोनों ओर
झील के किनारे ऊँचे सेमल के पेड़ पर
बैठी चिड़िया गाती है कोई पुराना गीत
गीत गाती चिड़िया
झील के पानी में
क्या कुछ उपलाता है झील में सतह पर
जिसे ढूँढ़ती है चिड़िया
जागती है चिड़िया
और राजमार्ग पर इकट्ठा होती है झुंड में
छोटे-छोटे जानवरों की देह
कुचली पड़ी होती है भागते पहियों के पीछे
छोटे-छोटे झुंड़ों में
ढूँढ़ती है चिड़िया
आँगन के बाँस पर बैठी है चिड़िया
चोंच से खुजलाती है अपने डैने
ढूँढ़ती है चिड़िया
छप्पर के दोनों ओर
झील के किनारे ऊँचे सेमल के पेड़ पर
बैठी चिड़िया गाती है कोई पुराना गीत
गीत गाती चिड़िया
झील के पानी में
क्या कुछ उपलाता है झील में सतह पर
जिसे ढूँढ़ती है चिड़िया
27.10.94
दीप्त है प्रकाश
हमने सहेजा है प्रकाश
चमकता है
प्रकाश का यह बिम्ब
राह पर
अन्धेरा है चतुर्दिक्
झँपा है इस अन्धेरे में
अच्छा और बुरा
पर चलने के लिए दीखता है राह पर
निर्मल प्रकाश
सौरमंडल के नायक
सूर्यनारायण से
थोड़ा छोटा है यह प्रकाश-बिम्ब
प्रकाश के इस बिम्ब में समाहित है
हज़ार वर्ष का समय
हज़ार आत्माओं की तपस्या
हज़ार प्राणों का ऐक्य
जिजीविषा और शक्ति
राह सुगम नहीं है अभी भी
सहयात्री हैं संग
छोटा है समूह
लेकिन प्रकाश है राह पर
पर्याप्त है प्रकाश
निर्मल है प्रकाश
सहस्त्राधिक वर्षों से दीप्त यह प्रकाश
दीप्त है अब भी
इस राह पर M
चमकता है
प्रकाश का यह बिम्ब
राह पर
अन्धेरा है चतुर्दिक्
झँपा है इस अन्धेरे में
अच्छा और बुरा
पर चलने के लिए दीखता है राह पर
निर्मल प्रकाश
सौरमंडल के नायक
सूर्यनारायण से
थोड़ा छोटा है यह प्रकाश-बिम्ब
प्रकाश के इस बिम्ब में समाहित है
हज़ार वर्ष का समय
हज़ार आत्माओं की तपस्या
हज़ार प्राणों का ऐक्य
जिजीविषा और शक्ति
राह सुगम नहीं है अभी भी
सहयात्री हैं संग
छोटा है समूह
लेकिन प्रकाश है राह पर
पर्याप्त है प्रकाश
निर्मल है प्रकाश
सहस्त्राधिक वर्षों से दीप्त यह प्रकाश
दीप्त है अब भी
इस राह पर M
7.11.94
बरगद का बीज
बरगद का पौधा
उग आया है इस दीवार पर
झक हरे चार पत्ते
बरगद का नन्हा-सा पौधा
जैसे विजयी सेना ने आकर
फहरा दिया हो
विजय-ध्वज अभेद्य दुर्ग पर
और उतार दिया हो
पराजित शासक का पुराना झंडा
इस विजय-पताका के सम्मान में
आकर थम गया है
सूर्यनारायण का रथ
कैसे हँसते हैं ये मोटे-मोटे पत्ते
खिल-खिल, खिल-खिल...
मिट्टी बना लेती है थोड़ी जगह
ईंट में, सीमेंट में
छने हुए बालू में
मिट्टी में दबे रहते हैं
मिट्टी में दबे रहते हैं
बरगद पीपल के बीज
और फहराने को तैयार रहते हैं
विजय-वैजन्ती
पत्थरों पर
पहाड़ों की बड़ी-बड़ी श्रृंखलाओं पर...
उग आया है इस दीवार पर
झक हरे चार पत्ते
बरगद का नन्हा-सा पौधा
जैसे विजयी सेना ने आकर
फहरा दिया हो
विजय-ध्वज अभेद्य दुर्ग पर
और उतार दिया हो
पराजित शासक का पुराना झंडा
इस विजय-पताका के सम्मान में
आकर थम गया है
सूर्यनारायण का रथ
कैसे हँसते हैं ये मोटे-मोटे पत्ते
खिल-खिल, खिल-खिल...
मिट्टी बना लेती है थोड़ी जगह
ईंट में, सीमेंट में
छने हुए बालू में
मिट्टी में दबे रहते हैं
मिट्टी में दबे रहते हैं
बरगद पीपल के बीज
और फहराने को तैयार रहते हैं
विजय-वैजन्ती
पत्थरों पर
पहाड़ों की बड़ी-बड़ी श्रृंखलाओं पर...
4.9.94
धरती है बीज के लिए
नीलांचल पर्वत पर
ब्रह्मपुत्र के किनारे
मातृदेवी मंदिर के गर्भ-गृह में
कामाख्या की कोख में खड़ा हूँ
क्यों याद आती है
कवयित्री तसलीमा नसरीन
कहाँ होगी वह यूरोप की
कँपकँपाती हवाओं में अभी ?
धरती है बीजों के लिए
उत्सुक और प्रफुल्ल
उसकी उत्सुकता को नष्ट करने की
कोशिश व्यर्थ है
धरती करेगी ही बीज-धारण
इस धारणा-शक्ति को
हम दिया करें
नीलांचल पर्वत की ऊँचाई और गौरव
ब्रह्मपुत्र के किनारे
मातृदेवी मंदिर के गर्भ-गृह में
कामाख्या की कोख में खड़ा हूँ
क्यों याद आती है
कवयित्री तसलीमा नसरीन
कहाँ होगी वह यूरोप की
कँपकँपाती हवाओं में अभी ?
धरती है बीजों के लिए
उत्सुक और प्रफुल्ल
उसकी उत्सुकता को नष्ट करने की
कोशिश व्यर्थ है
धरती करेगी ही बीज-धारण
इस धारणा-शक्ति को
हम दिया करें
नीलांचल पर्वत की ऊँचाई और गौरव
15.11.94
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